शुक्रवार, 12 अगस्त 2011

                                                  बौद्धिकता  और  भावुकता                                                                                                                                                   आज का मानव अपने को अत्याधुनिक समझने का दंभ करता है . उसका सोचना है कि उसने बहुत प्रगति कर ली है. वह यहाँ तक कहने से  भी नहीं चूकता कि उसने प्रकृति  पर भी विजय प्राप्त कर ली है. उसका ऐसा सोचना ही उसका सबसे बड़ा भ्रम है. ऐसा सोचकर या करके, मनुष्य स्वयं के अस्तित्व को ही ख़तरे में डाल रहा है. सच तो यह है कि आधुनिक सभ्यता पूर्णरूप से बौद्धिकता पर आधारित है. और ये हम सभी जानते हैं कि बुद्धि हमें स्वार्थ सिखाती है, त्याग और परोपकार नहीं. इतिहास साक्षी है कि जब बौद्धिकता अपने चरम पर होती है तब भावनात्मकता  अंतिम साँसे ले  रही होती है. आज के मनुष्य पर यही बौद्धिकता हावी है. इस कारण वह वही कार्य करना चाहता है जिसमें उसका लाभ हो. चाहे इसके लिए कितनों का  ही ह्रदय पीड़ित क्यों  न  करना पड़े. जब समाज पूर्णरूप से बुद्धि द्वारा संचालित होने लगता है तब ऐसे समाज में परोपकार,दया ,त्याग आदि मानवीय वृतियाँ दम तोड़ने लगती हैं. समाज में अपराध बढ़ने  लगता है. हर तरफ स्वार्थ,लालच का ही बोलबाला होने लगता है. रिश्तों की नई परिभाषा गढ़ी जाने लगती है. युद्ध ,अत्याचार , घोटाले,रिश्वतखोरी आदि इसी बौद्धिकता की ही अभिव्यक्ति हैं. एक आदर्श समाज के लिए भावना और बुद्धि का उचित सामंजस्य ज़रूरी है. समाज के व्यवस्थित संचालन के लिए भावना और बुद्धि दोनों का होना ज़रूरी है.मनुष्यता के निर्वाह के लिए यदि भावनात्मकता आवश्यक है तो सामाजिक प्रगति और शासन के लिए बौद्धिकता का होना भी ज़रूरी है. भावनाएँ होनी चाहिए किन्तु  उन पर बुद्धि का आवश्यक नियंत्रण भी होना ज़रूरी है. जिससे कि हमारी भावुक प्रवृति का अनुचित प्रयोग न हो सके.

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